करता है हर बात उजागर। इण्टर-नेट ज्ञान का सागर।। इससे मेल मुफ्त हो जाता। दूर देश में बात कराता।। कहती है प्यारी सी मुनिया। टेबिल पर है सारी दुनिया।। लन्दन हो या हो अमरीका। आबूधाबी या अफ्रीका।। गली, शहर हर गाँव देख लो। बादल, घूप और छाँव देख लो।। उड़न-तश्तरी यह समीर की। यह थाली है भरी खीर की।। जग भर की जितनी हैं भाषा। सबकी है इसमें परिभाषा।। पल में नैनीताल घूम लो। पर्वत की हर शिखर चूम लो।। चाहे शोख नजारे देखो। सजे-धजे गलियारे देखो।। अन्तर्-जाल बड़े मनवाला। कर देता है यह मतवाला।। छोटा सा कम्प्यूटर लेलो। फिर इससे जी भरकर खेलो।। आओ इण्टर-नेट पढ़ाएँ। मौज मनाएँ, ज्ञान बढ़ाएँ।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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11 अगस्त, 2010
‘‘इण्टर-नेट’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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इण्टर नेट के बारे मे बहुत ही सुन्दर बाल कविता लिखी है ज्ञान भी बढाती है।
जवाब देंहटाएंडॉ. साहब, हर विषय के मास्टर हैं आप तो...नेट पर बहुत ही बढ़िया कविता लिखी है आपने..मेरी बधाई...
जवाब देंहटाएंसम्मानिय दीनदयाल जी
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम !
आप ने तो चूहे और बिल्ली को एक साथ प्रस्तुत कर दिया , जो चूहा देख भी मलाई को बात करता है सका हारी बिल्ली को नमन ! आप के बाल रचनाये देख हमे नुर्सेरी कि क्लास याद आने लग गयी ,
बधाई !
आभार !
सुन्दर
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