दीपावली की शुभकामनाओं के साथ एक बाल कविता बिना सहारे और सीढ़ी के, झटपट पेड़ों पर चढ़ जाता। बच्चों और बड़ों को भी ये, खों-खों करके बहुत डराता। कोई इसको वानर कहता, कोई हनूमान बतलाता। मानव का पुरखा बन्दर है, यह विज्ञान हमें सिखलाता। गली-मुहल्ले, नगर गाँव में, इसे मदारी खूब नचाता। बच्चों को ये खूब हँसाता, पैसा माँग-माँग कर लाता। कुनबे भर का पेट पालता, लाठी से कितना घबराता। तान डुगडुगी की सुन करके, अपने करतब को दिखलाता। |
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10 नवंबर, 2012
“खों-खों करके बहुत डराता” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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वाह शास्त्री जी बढिया रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया शानदार बाल रचना बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बाल कविता
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें ||
बहुत बढ़िया बाल कविता!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभ कामनाओं के साथ-
जवाब देंहटाएंलिये 'प्रकाश हर्ष का सुन्दर' दीपावली के दीप जलें |
मायूसी का न् हो 'अँधेरा' मन में 'जगमग'आस पले||
बहुत सुन्दर बाल कविता....
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जवाब देंहटाएंबाल मन को सहज रिझाती है यह रचना .