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10 फ़रवरी, 2011

"जीने का ये मर्म बताते" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

चंचल-चंचल, मन के सच्चे।
सबको अच्छे लगते बच्चे।।

कितने प्यारे रंग रंगीले।
उपवन के हैं सुमन सजीले।।
भोलेपन से भरमाते हैं।
ये खुलकर हँसते-गाते हैं।।

भेद-भाव को नहीं मानते।
बैर-भाव को नहीं ठानते।।

काँटों को भी मीत बनाते।
नहीं मैल मन में हैं लाते।।

जीने का ये मर्म बताते।
प्रेम-प्रीत का कर्म सिखाते।।

9 टिप्‍पणियां:

  1. शास्त्री जी, बच्चो का प्यारा परिचय, आपका स्नेह, सब बच्चो की धरोहर बने, सुन्दर भावाव्यक्ति के लिए धन्यवाद्

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  2. जीने का ये मर्म बताते।
    प्रेम-प्रीत का कर्म सिखाते....

    बहुत अच्छी रचना के लिए बधाई।

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  3. भेद-भाव को नहीं मानते।बैर-भाव को नहीं ठानते।।
    काँटों को भी मीत बनाते।नहीं मैल मन में हैं लाते।।
    जीने का ये मर्म बताते।प्रेम-प्रीत का कर्म सिखाते।।

    वाह! कितनी सुन्दर बात कही है……………जीने को प्रेरित करती बेहद खूबसूरत रचना मन को भा गयी।

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  4. काँटों को भी मीत बनाते।नहीं मैल मन में हैं लाते।।
    जीने का ये मर्म बताते।प्रेम-प्रीत का कर्म सिखाते।

    क्या बात है...बहुत सुंदर।

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  5. वाकई बहुत सुन्दर बाल कविता है...

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  6. आद. शास्त्री जी,
    आपके इस कविता की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है !
    इतने सुन्दर भाव इतनी सरलता से आपने अभिव्यक्त किया है कि शब्द शब्द जीवंत हो उठे हैं !
    बधाई और साधुवाद !

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