रंग-रूप है भूरा-काला। लगता बिल्कुल भोला-भाला।। जब खतरे की आहट पाता। काँव-काँव करके चिल्लाता।। उड़ता पंख पसार गगन में। पहुँचा बादल के आँगन में।। शीतल छाया मन को भायी। नाप रहा नभ की ऊँचाई।। चतुर बहुत है काला कागा। किन्तु नही बन पाया राजा।। पितृ-जनों का इससे नाता। यह दुनिया को पाठ पढ़ाता।। काक-चेष्टा जो अपनाता। धोखा कभी नहीं वो पाता। |
यह ब्लॉग खोजें
17 सितंबर, 2010
“काला कागा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
वाह..क्या बात है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता ....धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनन्ही ब्लॉगर
अनुष्का
बहुत अच्छी कविता ---फ़ोटो भी सुन्दर..
जवाब देंहटाएंवाह्………………बहुत सुन्दर बाल गीत्।
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लगा कौआ पर लिखी हुई कविता!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता ..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता .
जवाब देंहटाएंकागा कित्ता चालक होता है...प्यारी कविता..बधाई.
जवाब देंहटाएं________________________________
'शुक्रवार' में चर्चित चेहरे के तहत 'पाखी की दुनिया' की चर्चा...
बहुत मन-भावन बाल कविता है .पता नहीं क्यों काग इतना तिरस्कृत रहा है,जब कि उसका रोल इतना मुखर है कि तुलसीदास जी भी मानस में उसे स्थान देने से चूके नहीं .
जवाब देंहटाएं.
बहुत अच्छी रचना है ...
जवाब देंहटाएं-----------
इसे भी पढ़े :- मजदूर
http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html
वाह यह बहुत ही प्यारी कविता है....... धन्यवाद आपका
जवाब देंहटाएं