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11 अक्तूबर, 2010

“भार उठाता, गधा कहाता” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")



कितना सारा भार उठाता।
लेकिन फिर भी गधा कहाता।।
farmer-donkey-1 रोज लाद कर अपने ऊपर,
कपड़ों के गट्ठर ले जाता।
वजन लादने वाले को भी,
तरस नही इस पर है आता।।
donkey -3जिनसे घर में चूल्हा जलता,
उन लकड़ी-कण्डों को लाता।
जिनसे पक्के भवन बने हैं,
यह उन ईंटों को पहुँचाता।।
donkey_11यह सीधा-सादा प्राणी है,
घूटा और घास को खाता।
जब ढेंचू-ढेंचू करता है,
तब मालिक है मार लगाता।।

भार उठाता, गधा कहाता।
फिर भी नही किसी को भाता।।
(चित्र गूगल छवि से साभार)

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत बाल गीत …………गधे का पूरा जीवन चित्रित कर दिया।

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  2. "मैं सीधा-सादा प्राणी हूँ,
    घूटा और घास हूँ खाता।
    जब भी ढेंचू-ढेंचू करता,
    तब-तब मालिक मार लगाता।।

    भार उठाता, गधा कहाता।
    फिर भी नही किसी को भाता।। "
    बहुत सुन्देर बाल कविता और बडो के लिये भी.. ज़िन्द्गी की हकीकत को बया करती कविता

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  3. गधे की त्रासदी तो यही है ...
    बहुत सुन्दर

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  4. बचपन में एक कविता पढ़ी तःई उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं :

    मेरे प्यारे सुकुमार गधे
    जग पड़ा दुपहरी में सुनकर मैं तेरी मधुर पुकार गधे!

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह ....गधे पर कितनी मजेदार कविता बनाई आपने....

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  6. ise padhkar krishna chandar ji ka upanyaas 'Ek gadhe ki aatma-kathaa' yaad aa gayaa..

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  7. बहुत सुन्दर कविता है नानाजी :)
    नन्ही ब्लॉगर
    अनुष्का

    जवाब देंहटाएं
  8. वाह, गधे में इत्ते सारे गुण...अच्छी कविता.
    ____________________
    'पाखी की दुनिया' के 100 पोस्ट पूरे ..ये मारा शतक !!

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  9. गधे के त्रासदीपूर्ण जीवन को बेहद खूबसूरती से बाल गीत के रूप में उकेरा गया है जिस से प्रस्तुति बेहद सुंदर और सार्थक बन गई है. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  10. मेरे प्यारे सुकुमार गधे !
    जग पड़ा दुपहरी में सुनकर
    मैं तेरी मधुर पुकार गधे !
    मेरे प्यारे सुकुमार गधे !
    तन-मन गूंजा, गूंजा मकान,
    कमरे की गूंज़ीं दीवारें ,
    लो ताम्र-लहरियां उठीं मेज
    पर रखे चाय के प्याले में !
    कितनी मीठी, कितनी मादक,
    स्वर, ताल, तान पर सधी हुई,
    आती है ध्वनि, जब गाते हो,
    मुख ऊंचा कर, आहें भर कर
    तो हिल जाते छायावादी
    कवि की वीणा के तार, गधे !
    मेरे प्यारे .....!
    तुम दूध, चांदनी, सुधा-स्नात,
    बिल्कुल कपास के गाले-से ,
    हैं बाल बड़े ही स्पर्श सुखद,
    आंखों की उपमा किससे दूं ?
    वे कजरारे, आयत लोचन,
    दिल में गड़-गड़कर रह जाते,
    कुछ रस की, बेबस की बातें,
    जाने-अनजाने कह जाते,
    वे पानीदार कमानी-से,
    हैं 'श्वेत-स्याम-रतनार' गधे !
    मेरे प्यारे ......!
    हैं कान कमल-सम्पुट से थिर,
    नीलम से विजड़ित चारों खुर,
    मुख कुंद-इंदु-सा विमल कि
    नथुने भंवर-सदृश गंभीर तरल,
    तुम दूध नहाए-से सुंदर,
    प्रति अंग-अंग से तारक-दल
    ही झांक रहे हो निकल-निकल,
    हे फेनोज्ज्वल, हे श्वेत कमल,
    हे शुभ्र अमल, हिम-से उज्ज्वल,
    तेरी अनुपम सुंदरता का
    मैं सहस कलम ले करके भी
    गुणगान नहीं कर सकता हूं,
    फिर तेरे रूप-सरोवर का
    मैं कैसे पाऊं पार गधे !
    मेरे प्यारे .......!
    तुम अपने रूप-शील-गुण से
    अनजान बने रहते हो क्यों ?
    हे लात फेंकने में सकुशल !
    पगहा-बंधन सहते हो क्यों ?
    हे साधु, स्वयं को पहचानो,
    युग जाग गया, तुम भी जागो !
    मन की कायरता को त्यागो,
    रे, जागो, रे, जागो, जागो !
    इस भारत के धोबी-कुम्हार
    भी शासक पूंजीवादी हैं।
    तुम क्रांति करो लादी पटको !
    बर्तन फोड़ो, घर से भागो !
    हे प्रगतिशील युग के प्राणी
    तुम रचो नया संसार गधे !
    मेरे प्यारे ......."

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