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28 अक्तूबर, 2010

"खों-खों करके बहुत डराता।" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

"बन्दर की व्यथा"

बिना सहारे और सीढ़ी के,
झटपट पेड़ों पर चढ़ जाता।
गली मुहल्लों और छतों पर,
खों-खों करके बहुत डराता।

कोई इसको वानर कहता,
कोई हनूमान बतलाता।
मानव का पुरखा बन्दर है,
यह विज्ञान हमें सिखलाता।

लाठी और डुगडुगी लेकर,
इसे मदारी खूब नचाता।
यह करतब से हमें हँसाता,
पैसा माँग-माँग कर लाता।

जंगल के आजाद जीव को,
मानव देखो बहुत सताता।
देख दुर्दशा इन जीवों की,
तरस हमें इन पर है आता।।
(चित्र गूगल छवि से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी लगी कविता नानाजी .....बन्दर के चित्र भी मुझे पसंद आए है
    आपकी प्यारी
    अनुष्का

    जवाब देंहटाएं
  2. बंदर पर बहुत ही सार्थक कविता पडने को मिली। मयंक जी को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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