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22 अक्तूबर, 2013

"पतंग का खेल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
एक बाल कविता
"पतंग का खेल" 
लाल और काले रंग वाली,
मेरी पतंग बड़ी मतवाली।

मैं जब विद्यालय से आता,
खाना खा झट छत पर जाता।
 
पतंग उड़ाना मुझको भाता,
बड़े चाव से पेंच लड़ाता।

पापा-मम्मी मुझे रोकते,
बात-बात पर मुझे टोकते।

लेकिन मैं था नहीं मानता,
नभ में अपनी पतंग तानता।

वही हुआ मन में जो डर था,
अब मैं काँप रहा थर-थर था।

मैं था यारों ऐसा हीरो,
सब विषयों लाया जीरो।

अब ये मैंने सोच लिया है,
पतंग उड़ाना छोड़ दिया है।

कभी नहीं अब हूँगा फेल,
नहीं करूँगा ज्यादा खेल।

आसमान में उड़ने वाली,
जो करती थी सैर निराली।

नहीं पतंग को प्यार करूँगा,
पढ़ने में अब ध्यान धरूँगा।

मित्रों! मेरी बात मान लो,
अपने मन में आज ठान लो।

पुस्तक लेकर ज्ञान बढ़ाओ।
कभी-कभी ही पतंग उड़ाओ।।

3 टिप्‍पणियां:

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