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13 मार्च, 2010

‘‘जंगल और जीव’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


रहता वन में और हमारे,
संग-साथ भी रहता है।
यह गजराज तस्करों के,
जालिम-जुल्मों को सहता है।।


समझदार है, सीधा भी है,
काम हमारे आता है।

सरकस के कोड़े खाकर,
 नूतन करतब दिखलाता है।।
मूक प्राणियों पर हमको तो,
तरस बहुत ही आता है।
इनकी देख दुर्दशा अपना,
सीना फटता जाता है।।

वन्य जीव जितने भी हैं,
सबका अस्तित्व बचाना है,
जंगल के जीवों के ऊपर,
दया हमें दिखलाना है।
वृक्ष अमूल्य धरोहर हैं,
इनकी रक्षा करना होगा।
जीवन जीने की खातिर,
वन को जीवित रखना होगा।

तनिक-क्षणिक लालच को,
अपने मन से दूर भगाना है।
धरती का सौन्दर्य धरा पर,
हमको वापिस लाना है।।

(सभी चित्र गूगल सर्च से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

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