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31 मार्च, 2010

‘‘भँवरा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


गुन-गुन करता भँवरा आया।
कलियों फूलों पर मंडराया।।


यह गुंजन करता उपवन में।
गीत सुनाता है गुंजन में।।


कितना काला इसका तन है।
किन्तु बड़ा ही उजला मन है।


जामुन जैसी शोभा न्यारी।
खुशबू इसको लगती प्यारी।।


यह फूलों का रस पीता है।
मीठा रस पीकर जीता है।।


(चित्र गूगल सर्च से साभार)

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपके लिखे बाल गीतों में ज्ञान का अनुपम भण्डार है....बहुत सुन्दर रचना..

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  2. कितना काला इसका तन है।
    किन्तु बड़ा ही उजला मन है।


    बहुत सही और सुन्दर , इंसानों में तो इसके बिलकुल उलट है !

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  3. संगीता जी ने सब कह दिया…………॥बहुत सुन्दर बाल गीत्।

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  4. bahut hee pyaara baal-geet , bhavare ki bhaanti hi gungunaane ko majboor karta hai , haardik badhaaii

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  5. बाल गीत में जान है ।
    दिल इस पर कुर्बान है॥

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  6. यह फूलों का रस पीता है।
    मीठा रस पीकर जीता है।।
    --
    काश, अगर मैं भँवरा होता,
    मैं भी रस पी-पीकर जीता!

    जवाब देंहटाएं

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