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17 सितंबर, 2010

“काला कागा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

crow_11jpgरंग-रूप है भूरा-काला।
लगता बिल्कुल भोला-भाला।।
housecrowjpgजब खतरे की आहट पाता।
काँव-काँव करके चिल्लाता।।
IMG_2031small Copyउड़ता पंख पसार गगन में।
पहुँचा बादल के आँगन में।।
crow2031JPGशीतल छाया मन को भायी।
नाप रहा नभ की ऊँचाई।।
चतुर बहुत है काला कागा।
किन्तु नही बन पाया राजा।।
पितृ-जनों का इससे नाता।
यह दुनिया को पाठ पढ़ाता।।
काक-चेष्टा जो अपनाता।
धोखा कभी नहीं वो पाता।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविता ....धन्यवाद !
    नन्ही ब्लॉगर
    अनुष्का

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  2. बहुत अच्छी कविता ---फ़ोटो भी सुन्दर..

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  3. वाह्………………बहुत सुन्दर बाल गीत्।

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  4. बहुत सुन्दर लगा कौआ पर लिखी हुई कविता!

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  5. कागा कित्ता चालक होता है...प्यारी कविता..बधाई.
    ________________________________
    'शुक्रवार' में चर्चित चेहरे के तहत 'पाखी की दुनिया' की चर्चा...

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  6. बहुत मन-भावन बाल कविता है .पता नहीं क्यों काग इतना तिरस्कृत रहा है,जब कि उसका रोल इतना मुखर है कि तुलसीदास जी भी मानस में उसे स्थान देने से चूके नहीं .

    .

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  7. बहुत अच्छी रचना है ...
    -----------
    इसे भी पढ़े :- मजदूर

    http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html

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  8. वाह यह बहुत ही प्यारी कविता है....... धन्यवाद आपका

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