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26 फ़रवरी, 2011

"भैंस हमारी सीधी-सादी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

सीधी-सादी, भोली-भाली।
लगती सुन्दर हमको काली।।

भैंस हमारी बहुत निराली।
खाकर करती रोज जुगाली।।

इसका बच्चा बहुत सलोना।
प्यारा सा है एक खिलौना।।

बाबा जी इसको टहलाते।
गर्मी में इसको नहलाते।।

गोबर रोज उठाती अम्मा।
सानी इसे खिलाती अम्मा।

गोबर की हम खाद बनाते।
खेतों में सोना उपजाते।।

भूसा-खल और चोकर खाती।
सुबह-शाम आवाज लगाती।।

कहती दूध निकालो आकर।
धन्य हुए हम इसको पाकर।।

25 फ़रवरी, 2011

"मेरा खरगोश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

रूई जैसा कोमल-कोमल,
लगता कितना प्यारा है।
बड़े-बड़े कानों वाला,
सुन्दर खरगोश हमारा है।।

बहुत प्यार से मैं इसको,
गोदी में बैठाता हूँ।
बागीचे की हरी घास,
मैं इसको रोज खिलाता हूँ।।

मस्ती में भरकर यह
लम्बी-लम्बी दौड़ लगाता है।
उछल-कूद करता-करता,
जब थोड़ा सा थक जाता है।।

तब यह उपवन की झाड़ी में,
छिप कर कुछ सुस्ताता है।
ताज़ादम हो करके ही,
मेरे आँगन में आता है।।

नित्य-नियम से सुबह-सवेरे,
यह घूमने जाता है।
जल्दी उठने की यह प्राणी,
सीख हमें दे जाता है।।

24 फ़रवरी, 2011

"बालकविता-हाथी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


सूंड उठाकर नदी किनारे
पानी पीता हाथी।
सजी हुई है इसके ऊपर
सुन्दर-सुन्दर काठी।।

इस काठी पर बैठाकर
यह वन की सैर कराता।
बच्चों और बड़ों को
जंगल दिखलाने ले जाता।।

भारी तन का, कोमल मन का,
समझदार साथी है।
सर्कस में करतब दिखलाता
 प्यारा लगता हाथी है।।

20 फ़रवरी, 2011

"क्या मैना होती है ऐसी?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

मैं तुमको गुरगल कहता हूँ,
लेकिन तुम हो मैना जैसी।
तुम गाती हो कर्कश सुर में,
क्या मैना होती है ऐसी??

सुन्दर तन पाया है तुमने,
लेकिन बहुत घमण्डी हो।
नहीं जानती प्रीत-रीत को,
तुम चिड़िया उदण्डी हो।।

जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर,
तुम आगे को बढ़ती हो।
अपनी सखी-सहेली से तुम,
सौतन जैसी लड़ती हो।।

भोली-भाली चिड़ियों को तुम,
लड़कर मार भगाती हो।
प्यारे-प्यारे कबूतरों को भी,
तुम बहुत सताती हो।।

मीठी बोली से ही तो,
मन का उपवन खिलता है।
अच्छे-अच्छे कामों से ही,
जग में यश मिलता है।।

बैर-भाव को तजकर ही तो,
अच्छे तुम कहलाओगे।
मधुर वचन बोलोगे तो,
सबके प्यारे बन जाओगे।।

15 फ़रवरी, 2011

"काँव-काँवकर, चिल्लाया है कौआ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

काले रंग का चतुर-चपल,
पंछी है सबसे न्यारा।
डाली पर बैठा कौओं का, 
जोड़ा कितना प्यारा।

नजर घुमाकर देख रहे ये,
कहाँ मिलेगा खाना।
जिसको खाकर कर्कश स्वर में,
छेड़ें राग पुराना।।

काँव-काँव का इनका गाना,
सबको नहीं सुहाता।
लेकिन बच्चों को कौओं का,
सुर है बहुत लुभाता।।

कोयलिया की कुहू-कुहू,
बच्चों को रास न आती।
कागा की प्यारी सी बोली, 
इनका मन बहलाती।।

देख इसे आँगन में,
शिशु ने बोला औआ-औआ।
खुश होकर के काँव-काँवकर,
चिल्लाया है कौआ।।

10 फ़रवरी, 2011

"जीने का ये मर्म बताते" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

चंचल-चंचल, मन के सच्चे।
सबको अच्छे लगते बच्चे।।

कितने प्यारे रंग रंगीले।
उपवन के हैं सुमन सजीले।।
भोलेपन से भरमाते हैं।
ये खुलकर हँसते-गाते हैं।।

भेद-भाव को नहीं मानते।
बैर-भाव को नहीं ठानते।।

काँटों को भी मीत बनाते।
नहीं मैल मन में हैं लाते।।

जीने का ये मर्म बताते।
प्रेम-प्रीत का कर्म सिखाते।।

01 फ़रवरी, 2011

"तीन रंग का झण्डा प्यारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

तीन रंग का झण्डा न्यारा।
हमको है प्राणों से प्यारा।।

त्याग और बलिदानों का वर।
रंग केसरिया सबसे ऊपर।।

इसके बाद श्वेत रंग आता।
हमें शान्ति का ढंग सुहाता।।

सबसे नीचे रंग हरा है।
हरी-भरी यह वसुन्धरा है।।

बीचों-बीच चक्र है सुन्दर।
हों विकास भारत के अन्दर।।
चित्रांकन
प्रांजल
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