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12 अक्तूबर, 2011

"ककड़ी मोह रही सबका मन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


लम्बी-लम्बी हरी मुलायम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
कुछ होती हल्के रंगों की,
कुछ होती हैं बहुरंगी सी,
कुछ होती हैं सीधी सच्ची,
कुछ तिरछी हैं बेढंगी सी,
ककड़ी खाने से हो जाता,
शीतल-शीतल मन का उपवन।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
नदी किनारे पालेजों में, 
ककड़ी लदी हुईं बेलों पर,
ककड़ी बिकतीं हैं मेलों में,
हाट-गाँव में, फड़-ठेलों पर,
यह रोगों को दूर भगाती,
यह मौसम का फल है अनुपम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
आता है जब मई महीना,
गर्म-गर्म जब लू चलती हैं,
तापमान दिन का बढ़ जाता,
गर्मी से धरती जलती है,
ऐसे मौसम में सबका ही,
ककड़ी खाने को करता मन।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।

5 टिप्‍पणियां:

  1. लम्बी-लम्बी हरी मुलायम।
    ककड़ी मोह रही सबका मन।।

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...चित्र भी सुन्दर...

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  2. अरे वाह ककडी पर इतनी मुलायम मधुर कविता एकदम ककडी जैसी । चित्र भी सुन्दर पर एक चित्र में ककडी नही चचेडे लग रहे हैं ।

    जवाब देंहटाएं

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