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13 मई, 2010

“लीची के गुच्छे मन भाए!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

हरी, लाल और पीली-पीली!
बिकती लीची बहुत रसीली!!

IMG_1175
गुच्छा प्राची के मन भाया!
उसने उसको झट कब्जाया!!

IMG_1178 लीची को पकड़ा, दिखलाया!
भइया को उसने ललचाया!!

IMG_1179प्रांजल के भी मन में आया!
सोचा इसको जाए खाया!!

IMG_1180गरमी का मौसम आया है!
लीची के गुच्छे लाया है!!

IMG_1177दोनों ने गुच्छे लहराए!
लीची के गुच्छे मन भाए!!

9 टिप्‍पणियां:

  1. चुराने का मन हो रहा है लेकिन आपने मना कर रखा है........

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  2. लीची देखकर तो मुह में पानी आ गया , लीची पर कविता सुन्दर है

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  3. कविता और कविता का सचित्र प्रस्तुति..लाज़वाब शास्त्री जी..सुंदर कविता के लिए बधाई

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  4. चित्र और कविता ..दोनों ही बेमिसाल....

    लीची देख सबका मन ललचाया

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  5. आज तो सबका मन ललचा दिया………………बहुत सुन्दर कविता।

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  6. सुन्दर सुन्दर प्यारी प्यारी मीठी मीठी लीची देखकर तो मुँह में पानी आ गया! अब तो रहा नहीं जा रहा है तुरंत खाने का मन कर रहा है! तस्वीर के साथ साथ बहुत ही प्यारी रचना!

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  7. बहुत सुन्दर..मुँह में पानी आ गया...

    ______________
    'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है !!

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