यह ब्लॉग खोजें

06 दिसंबर, 2010

"कुकड़ूकूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

रोज सवेरे मैं उठ जाता।
कुकड़ूकूँ की बाँग लगाता।।

कहता भोर हुई उठ जाओ।
सोने में मत समय गँवाओ।।

आलस छोड़ो, बिस्तर त्यागो।
मैं भी जागा, तुम भी जागो।।

पहले दिनचर्या निपटाओ।
फिर पढ़ने में ध्यान लगाओ।।

अगर सफलता को है पाना।
सेवा-भाव सदा अपनाना।।

मुर्गा हूँ मैं सिर्फ नाम का।
सेवक हूँ मैं बहुत काम का।।

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर बाल कविता………जिसे आज सब भूल चुके हैं आपने आज उसे याद करा दिया।

    जवाब देंहटाएं
  2. मुर्गे की प्यारी सी कविता .........

    जवाब देंहटाएं
  3. कित्ती प्यारी कविता...बधाई.
    ______________
    'पाखी की दुनिया' में छोटी बहना के साथ मस्ती और मेरी नई ड्रेस

    जवाब देंहटाएं

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथासम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।