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28 मई, 2014

"इसे मदारी खूब नचाता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
एक बालगीत


बिना सहारे और सीढ़ी के,
झटपट पेड़ों पर चढ़ जाता।
गली मुहल्लों में लोगों को,
खों-खों करके बहुत डराता।

कोई इसको वानर कहता,
कोई हनूमान बतलाता।
मानव का पुरखा बन्दर है,
यह विज्ञान हमें सिखलाता।

लाठी और डुगडुगी लेकर,
इसे मदारी खूब नचाता।
यह करतब से हमें हँसाता,
माँग-माँग कर 
पैसा लाता।

जंगल के आजाद जीव को,
मानव देखो बहुत सताता।
देख दुर्दशा इन जीवों की,
तरस हमें इन पर है आता।।

2 टिप्‍पणियां:

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