"एक खेल मदारी का" डम-डम, डम-डम डमरू बाजा। उछला-कूदा, छुटकू राजा।। खाना खाकर ताजा-ताजा। ठुमक-ठुमककर छुटकू नाचा।। वानर-राजा खेल दिखाते। बच्चे तालीखूब बजाते।। छुटकी को कर रहा इशारा। लगता सबको कितना प्यारा।। अब छुटकी भी उठकर आई। खेल-खेल में धूम मचाई।। सबको जमकर खूब हँसाया। हाथ जोड़कर शीश नवाया।। कितनी मेहनत दोनों करते। पेट मदारी का ये भरते।। |
यह ब्लॉग खोजें
03 मार्च, 2010
“मदारी का खेल : रानीविशाल” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत ही प्यारी कविता लगी ।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा । बहुत सुंदर प्रयास है। जारी रखिये ।
जवाब देंहटाएंआपका लेख अच्छा लगा।
हिंदी को आप जैसे ब्लागरों की ही जरूरत है ।
अगर आप हिंदी साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें जैसे उपन्यास, कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह, निबंध इत्यादि डाउनलोड करना चाहते है तो कृपया किताबघर पर पधारें । इसका पता है :
http://Kitabghar.tk
bahut hi sundar kavita......badhayi.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बाल रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...ऐसा लगा की सामने ही मदारी खेल दिखा रहा है.....बधाई
जवाब देंहटाएंAap sab ko bahut bahut dhanywaad aur sabse jyada aabhar adarniya Shashtriji ka jinhone rachana ke swarup ko apane shabd shilp se bahut khubsurat banaya hai...aapko phir se dhanyawaad!
जवाब देंहटाएंbahut mithi, mast kavita
जवाब देंहटाएं